तपस्वीगुरू अमरदास जी

तपस्वीगुरू अमरदास जी - बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - संतषिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी व सफुरामाता की गोद में जेष्ठ पुत्र गुरू अमरदास जी का अवतरण जुलाई 1794 को गुरू पुर्णिमा के दिन पावन गांव गिरौदपुरी में हुआ। गुरू अमरदास जी निर्गुण लक्षण प्रभाव गुणो के धनी थे, वे अपने पिता के समान ही तन मन व वचन से परोपकारी सतधारी जीवन व कार्यो से समुचे संसार को सतनाम का बोध कराया। गुरू अमर दास जी अचेतन समाज में चेतना जगाकर मानवता को समानता का अधिकार व अहिंसा पूर्वक कर्तव्यो का पालन करना सिखलाया। गुरू अमर दास जी अपने ज्ञान उपदेशो में सतनाम पंथ में उॅच्च-निच,छुत-अछुत अमीर-गरीब,काले-गोरे के भेदभाव से परे सभी मानव जीति को प्रत्यक्ष और प्रमाणित संदेश से मोहग्रस्त जीवों का अंधकार दुर किया करते थे।

बाल्यकाल से ही वैराग्य के गुण - गुरू अमरदास जी के वैराग्य रूप के लक्षण बाल्यकाल में संत जनों को देखने मिल गया था, गुरू अमरदास जी सात वर्ष की अवस्था में सतपुरूष का ध्यान कर अनुभवी ज्ञान के उपदेश को देखकर उसके तपस्या प्रभाव,निर्भयता से संतजनों को ज्ञात हो गया था कि गुरू अमरदास जी अपने सिद्वांत,विचार एवं उद्वेश्य को लेकर अपने पिता के सत मार्ग को आगे की ओर ले जाने की संकल्प ले लिया है। वे मात्र सात साल के आयु में ही समझदार व आत्म निर्भर हो गया था। गुरू अमरदास जी का एकांत व अज्ञातवास - गुरू अमरदास जी सन् 1800 को सात वर्ष के आयु में ही अपने माता पिता से मानव कल्याण के लिए तपस्या व अघ्यात्मिक सतमार्ग को स्थापित करनें एकांत शांत स्थल पर अज्ञातवास रहने की अनुमति पाकर गिरौदपुरी के घने जंगल अमरगुफा बाघमाड़ा के अंदर में जहा सर्प बिच्छू विशैले जीव व घोर अंधकार बाहर जंगल के वन्य प्राणियो के बीच सतनाम सतपुरूष साहेब की असीम कृपा व पिता संतशिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी की आर्शिवाद से वह अमरगुफा बाघमाड़ा जहा लोभ,मोह,छल,कपट व ईष्र्या प्राणी नही जा सकते वहां सात वर्षीय बालक गुरू अमरदास जी अपनें तन मन को तपाने अनिश्चित काल तक अज्ञातवास में रह कर तपस्या में लीन रहे।

सतपुरूष दर्शन व सतज्ञान/अमृत की प्राप्ति - बाल ब्रम्हचारी गुरू अमरदास जी द्वारा 12 वर्श तक कठोर तपस्या किया,तब सतपुरूश साक्षात् दर्शन देकर अपने अंश अवतार को उनके मानव जीवन की उद्वेश्य से अवगत कराते हुए कहा कि आपका अवतरण जगत के संतों को जन्म, मरण, सुख,दुख,लाभ,हानि,संयोग,वियोग,शुभ,अशुभ,गुण,अवगुण,प्रकाश, अंधेरा के भ्रम जाल से मुक्त कराकर उन्हे सतनाम के शक्ति जो संसार के कण कण व सभी सजीव निर्जिव में समान रूप समाहित है,सत से कोई भिन्न नही हो सकता संसार के मूल कारण सतनाम है और सत से ही जगत का सृजन हुआ है,सतनाम ही जीवनचक्र के मुक्ति का मार्ग है। गुरू अमरदास आपके आत्मज्ञान, विश्वास और संयम ये तीनो अपार शक्ति है जो तीनो काल में सतनाम के प्रति समर्पण आपके भीतर उत्तम गुण है,उन्हे बाहर निकाल कर संतो को उपदेश देकर सतनाम को संसार में प्रकाशमान कर सत्य, अहिंसा,दया,पे्रम,करूणा,पवित्र,समानता,स्वतंत्रता व मानवता को स्थापित करना है। संसार के रंगमंच में हर व्यक्ति की अलग भूमिका है,जहा व्यकित प्रतिकुल परिस्थितियों को स्वानुकुल बनाकर संभावित चिंता व कष्ट से स्वंय को बचाता है,सृष्टि में मानव सर्वोत्कृष्ट रचना है,यदि जीवन के सत्य को जानना है तो स्ंवय को जानना होगा,आज नैतिकता व मानवता का ह्नास हो रहा है। सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों और स्वार्थो के चलते मानवीय संबंधो में कटुता बढ़ती जा रही है ऐसे में लोगो के विचारो में परिवर्तन कर नैतिकता,सिद्वांतों और आदर्शो की उपदेश से आपसी सौहार्द्र,भाईचारा और प्रेम व्यवहार जीवन को सहज बनाकर सतपुरूष की कृपा से सुख, शांति व समृद्वि मिलेगी। परिवर्तन ही प्रकृति का स्वभाव है व जीवन सतत गतिशील है अपनें विचारों व आचरण में सतनाम के नियमों का पालन कर जीवों के मन हृदय और आत्मा को सभी प्रकार के बंधनो से मुक्त कराने की अपेक्षा कर सतपुरूश गुरू अमरदास जी को जगतकल्याण हेतु अमृत कलश देकर कर उनका सद्उपयोग करने का आर्शिवचन प्रदान कर अर्तध्यान हो गया।

गुरू अमरदास जी का एकांत,अज्ञातवास से लौटना - कठिन तप से सतपुरूष के दर्शन व सतज्ञान के प्राप्ति के बाद सतनाम के अलौकिक शक्ति से युक्त सन् 1811 को कुशलता पुर्वक त्यागमुर्ति बालब्रम्हचारी गुरू अमरदास जी माता पिता को दर्शन देने हेतु आया। 12 वर्षो के पश्चात सतधारी तपसीगुरू अपने माता पिता को सत्य प्रमाण सहित पुत्र होने का चरित्र गाथा सुनाया। पुत्र को परखने सफुरामाता द्वारा एक परीक्षा गोरसदान मुखपान (सफेद नये वस्त्र के लोच लगाकर परदा आड़ से अपना गोरस निकाला जो सतपुरूष के कृपा से तपसीगुरू अमरदास जी के मुख में चला गया ) लिया जैसे ही गुरू अमरदास जी माता के परीक्षा में पास हुआ। सफुरामाता उन्हे हृदय से लगाया व गुरू बालकदास जी अपने बड़े भाई का आर्शिवाद लिया। इसके बाद सत्य के कसौटी में सफल हुए तपस्वी गुरू अमरदास जी को संतजनों के द्वारा गुरूकुल के रितिनुसार नारियल धोती भेटकर पुष्पमाला पहिनाकर सुंदर आसन में बैठाया जहा चरण धोकर आशिष लेते हुए भेट निछावर किया गया उसके बाद गुरू परिवार की संयुक्त दर्शन आर्शिवचन दिया जहां भण्डारपुरी के अलावा अन्य ग्रामवासीयो की भीड़ गुरूदर्शन मेंला में परिवर्तन हो गया जहां तपस्वी गुरू अमरदास जी के प्रथम उपदेश सतनाम के महिमा से परिचित हुए।

गुरू अमरदास जी का वैवाहिक जीवन - गुरू अमरदास जी का विवाह सन् 1822 को प्रतापपुर के अवतारी देव कन्या अंगारमती ऊर्फ देवकी ऊर्फ रूखमणी ऊर्फ प्रतापुरहीन माता के साथ हुआ था। गौना के रात्राी को ही माता रूखमणी को गुरू अमरदास जी के दिव्य रूपो के साथ सतपुरूष का दर्शन तथा जीवन उद्वेश्य का ज्ञान प्राप्त किया और गुरू अमरदास जी व माता रूखमणी साथ रहकर भी दामपत्य जीवन का निर्वाहन न कर ब्रम्हचर्य धर्म का पालन किया। जिसके कारण उनकी कोई संतान नही हुआ।

धर्मनिति से मानवता का बोध कराने की जिम्मेदारी - गुरू बाबा घासीदास जी अपनें दोनों पुत्र की समाज व मानव सेवा करने की कार्य क्षमता, ललक व हजारो भक्तो तथा संतजनो की आग्रह को देखते हुए। कार्यो का बटवारा करते हुए गुरू अमरदास जी को संत समाज को सही रास्ता (सतनाम के मार्ग) बतलाने धर्मनिति (मानव जीवन का बोध) व गुरू बालकदास जी को राजनिति (मानव समाज को संगठित कर सामुदायिक विकास व शासन में सहभागिता) पर चलनें कहा। जिसे सतनाम के पथ पर चलकर मानव अपने कर्तव्य का पालन करते हुए स्वतंत्र,समानता,शांति व सुखमय जीवन की प्राप्ति हो।

तपस्वी गुरू अमरदास जी के सतनाम संदेश - संतशिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी अपनें जेश्ठ पुत्र गुरू अमरदास जी को संत समाज को सही रास्ता (सतनाम के मार्ग) बतलाने धर्मनिति (मानव जीवन का बोध) बतलाने की जिम्मेदारी मिलते ही क्रमशः भण्डारपुरी,तेलासीपुरी,गिरौदपुरी सहित मघ्य प्रांत के अनेको स्थलो पर ज्ञान उपदेष से पथ, धर्म, दर्शन, प्रेम, चेतना,विचार,कर्म से सतनाम की व्याख्या कर मानव जीवन की सार्थकता को समझाया।

आध्यात्मिकता से चरित्र निर्माण का संदेश - तपस्वीगुरू अमरदास जी ने संतो को बतलाया कि आध्यात्मिकता का अर्थ उस चेतना पर विश्वास करना जो जीवधारियों को एक दुसरे से जोड़ते है, मानव सहित अन्य जीव जन्तु का जीवन प्रकृति के पदार्थो पर निर्भर है,हम प्रकृति चक्र के अनुरूप जीवन शैली से शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता बढ़ती है तथा जीवो के गुण,कर्म व स्वभाव में समता की लक्षण स्वमेव दिखाई देता है, आध्यत्कि जीवन से सुख के संवर्धन और दुख के निवारण की स्वथाविक आकाक्षा केवल निज शरीर,परिवार से कही अधिक व्यापक बनाती है।

आध्यात्म से आंतरिक जीवन में आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मसंयम,इंद्रियो पर नियंत्रण,मर्यादा का पालन,सादगी,नम्रता,चरित्रनिर्माण,कर्तव्यबोध,धर्य,आकाक्षाओं और अभिरूचियों में परिवर्तन होता है,तथा बाहरी जीवन में सद्व्यवहार ,ईमानदारी,शालिनता,न्यायशीलता,परोपकारिता,जनसेवा व श्रमशिलता आदि आचरणों में परिवर्तन होता है। आध्यत्मिकता सतपुरूष पिता सतनाम की ज्ञान है सिके बोध से होने पर प्राणियो का विवेक जागृत हो जाता है और मानव के लिए अमरत्व का रास्ता मिल जाता है।

तपस्वीगुरू अमरदास जी के अनमोल वाणी।

1. अपनें सभी कार्य को समय पर कर लेना चाहिए।
2. धीरज ही विपत्ति का सबसे बड़ा मित्र है।
3. सदैव सतनाम को याद कर हमें सच बोलना चाहिए।
4. जन्म है तो मरण भी है,दुख है तो सुख भी है।
5. सत्य अहिंसा श्रेष्ठ मानव धर्म है।
6. गुरू व माता-पिता का सदैव सम्मान करे।
7. सभी धनो में विद्याधन श्रेष्ठ है।
8. शिष्टाचार व सतचरित्र गुणों से युक्त मनुष्य का समग्र सफलता प्राप्त करता है।
9. संयम से मनुष्य की आयु बढ़ जाति है।
10. सतकर्म ही मानव को श्रेष्ठ बनाती है।
11. काम,को्रध,लोभ व मोह का परित्याग कर मानव समनाम के पथ पर चलो।
12. मित्र और शत्रु,पुत्र,रिश्तेदारो किसी के प्रति आश्रित मत रहो।
13. सतनाम का जपन करते हुए शास्वत नियमों का यथाशक्ति पालन करो।
14. सत्य का अर्थ है मन,वचन व कर्म में कपट आचरण का अभाव।
15. सतनाम ही श्रेष्ठ मानवधर्म है,सत्य ही सतपुरूष व सतपुरूष ही सत्य है।
16. अपने आप पर विश्वास होना सबसे बड़ा सहायक होता है।
17. कोई भी जीवन असफल नही होता क्योकि जीवन मृत्यु,सुखदुख में सतपुरूष समान रूप से संसार के कण कण में विराजमान है।
18. मानव मरता है लेकिन उनके ज्ञान,दान व सद्कर्म उन्हे अमर बनाये रखता है।
19. सतत अभ्यास से जीवन में निश्चित सफलता मिलती है।
20. प्राणियो पर दया व कष्ट पिडि़त लोगो की सेवा करना मानव का कर्तवय है।
21. साधुता हमारा जीवन व सतनाम संस्कारों दिव्य मंजुशा है।

तेलासीपुरी में गुरू महिमा - तपस्वीगुरू अमरदास जी पिता की आज्ञा पाकर सत्य अहिंसा के पथ पर चलते हुए,अनेको चमत्कारिक व विशवसनीय कार्य किये उनकी महिमा का गुणगान जन जन करने लगें तथा तपस्वीगुरू की ख्यााति दुर दुर तक फैलती गई,तपस्वीगुरू अमरदास जी के तेलासी प्रवास पर धर्मसभा में बतलाया कि मनुष्य अपनी कर्म का फल स्यवं भोगना पढ़ता है अतः सतपुरूष सतनामपिता व प्रकृति को कभी नही भूलना चाहिए मनुष्य अपनी सुख दुख व लाभ हानि का कारण स्वयं है। सतनाम की ज्ञान रूपी अमृतवाणी,संदेश,विचार को सुन व जानकर पुरा वातावरण सतनाममय हो गया यही तपस्वी गुरू के द्वारा अनेको व्याधि व अंधविसवास से पिडि़त लोगो के जीवन में जागरूकता,मृत अवस्था में पहुच चूके बालक को जीनवदान,लोगो को सतपुरूष के महिमा का अहसास,मानव जीवन के उद्वेश्य आदि पर सतनाम प्रचारक गुरू अमरदास जी के चमत्कार से प्रभावित तेली,कुर्मी,यादव व अन्य समाज के पुरा तेलासी ग्राम के निवासी श्री गुरू के चरणो में समर्पित होकर गुरू अमरदास व सतनामधर्म की जयकारा कर सतनामधर्म स्वीकार कर सतनामी समाज में शामिल हो गये,आज भी इसके प्रमाण तेलासीपुरीधाम में सुरक्षित है।

चटवापुरी में गुरू समाधि - तपस्वीगुरू अमरदास जी ने चटुवा ग्राम के धर्मसभा में संतो के बीच पहुचकर सतनामधर्म के सत्य अहिंसा व प्रेम के उपदेश में जीवन के परिभाषा पर बताया कि संसार के प्रत्येक जीव जन्तु पेड़ पौधा इस धरा में प्रकृति से पालित पोषित होकर अपना जीवन जी रहे है लेकिन जीवन की परिभाषा क्या है,मेरे प्यारे संतजन आत्मा व शरीर का सयोग ही जीवन है। और व्यक्ति को अच्छा बनने के लिए अपने जीवन में सद्विचारों गुणों का समावेश कर संसार में,अपनें व्यक्तित्व का विशेष पहचान बना सकते है। संतो के आग्रह पर गुरू अमरदास जी अमरत्व का सहस्य को सिंद्व करने धर्म सभा में सतपुरूश के बतलाये नियमों के अनुसार संतो को तीन दिन के समाधि का संपूर्ण विधि-विधान समझाकर तीन दिन के पष्चात पुनः वापसी तक इंतजार करने कहकर संत तपस्वीगुरू अपनें ध्यानयोग शक्ति से अमरत्व (अमृत लाने)की प्राप्ति के लिए सतपुरूष के ध्यान में तीन दिन की अखण्ड समाधि में लीन हो गये। तपस्वीगुरू के द्वारा ध्यानयोग शक्ति से अमरत्व की प्राप्ति हेतु तीन दिवस की सतसमाधी की बात पुरे शिवनाथ तटक्षेत्र से दुर दुर तक फैल गई गुरूदर्शन हेतु लोगो का चटुवा गांव में भारी मेंला लग गया। संत समाज के द्वारा पुरे विधि विधान से पुजा आरती मंगल गीत का सिलसिला तीन दिनों तक सफलतपूर्वक समाधी स्थल पर चलता रहा। अंतिम दिवस सतनाम के विरोधियो बटोही के द्वारा छलपूर्वक सड़यंत्र कर गुरूसमाधि से भुतपे्रत हैवान बनकर वापिस आने की बात फैलाई गई तथा तपस्वीगुरू के शक्ति से अंजान सतनामी समाज के लोगों के द्वारा ही समाज विरोधियो के बातों/तर्को में फसकर संतजन तपस्वीगुरू बतलाये सतनाम नियम का पालन नही किया वरन् समाधिपट खोलकर गुरू के अवचेतन शरीर को जीवन की गति को स्थिर समझकर शिवनाथ नदी के किनारे दफन कर दिया गया,व कुछ देर के पश्चात सतपुरूष की कृपा से अमृत लेकर तपस्वीगुरू जब समाधीस्थल पर पहुच कर देखा तो उनके शरीर को सतंसमाज के द्वारा मृत समझकर (1824 को) दफन कर दिया है तब संतो को आकाशवाणी कर तपस्वीगुरू ने कहा कि मेरे संतों मै तुम सब के लिए अमृत लाने अमरलोक गया था और तुम लोग मेंरे लौटनें के पूर्व ही अपना विश्वास खो दिया, जो गुरू 11वर्षो तक अज्ञातवास में रहकर सकुशल सशरीर घर लौटा हो,उसका चार दिन भी इंतजार न कर सके। अपनी करनी पर पछतावा करते हुए सतनामी समाज के लोगो द्वारा सामूहिक माफी मागी गई व तपस्वीगुरू सें संतों पर सदैव कृपा बनाये रखनें का निवेदन किया, तब तपस्वीगुरू अमरदास जी संतो को माफकर आर्शिवाद देते हुए कहा कि वे सत में विश्वास करने वाले श्रधालुओं को पूशपूर्णिमा के मेला पर्व पर चटुवापुरीधाम में साक्षात दर्षन देगे इतना कह कर तपस्वीगुरू अर्तध्यान हो गया। उस महान आत्मा को प्रणाम करने के तत्पश्चात भण्डारपुरी शोक संदेश भेजा गया। शोक संदेश पाते ही गुरू परिवार के साथ सतनाम धर्म के सभी अनुयायी संतसमाज शोकमग्न हो गया।

बलिदानी राजागुरू बालक दास जी

बलिदानी राजागुरू बालक दास जी - बाबा गुरू घासीदास जी के वंशज उत्तराधिकारी, गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - गुरू बाबाघासीदास जी व माता सफुरा के द्वितिय पुत्र गुरू बालक दास जी का जन्म 1801 को भाद्र पक्ष अष्टमी को हुआ।गुरू बालकदास बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा का धनी रहा है,उन्होने अपने पिता गुरू बाबा घासीदास जी व बड़े भाई गुरू अमरदासजी तथा समकालिन साधु संत महापुरूषों की संगत में रहकर अध्यात्मीक,व्यवहारिक,वैचारिक व न्यायिक पाठ पढ़, कायाखण्ड को समझा तथा बाल्यकाल में ही अपने मित्रों से खेल खेल (राजा चोर,भौरा बाटी, अन्धीचपाट, रूखचढ़वा,खडुवाखेल ) में राजा बनकर जो न्याय करते थे उससे बड़े बड़े विद्वावान भी चकित हो जाते थे।

युवा अवस्था - गुरू बालकदास जी युवा अवस्था में पहुचते ही मानव कल्याण व समाज सुधार के लिए अपने पिता गुरू बाबा घासीदास जी के द्वारा चलाये जा रहे सतनाम आंदोलन,संदेश,उपदेश वाणी को जन जन तक पहुचानें के लिये संकल्पित हो गये थे। गुरू बाबा घासीदास जी अपनें दोनों पुत्र की समाज व मानव सेवा करने की कार्य क्षमता, ललक व हजारो भक्तो तथा संतजनो की आग्रह को देखते हुए। कार्यो का बटवारा करते हुए गुरू अमरदास जी को संत समाज को सही रास्ता (सतनाम के मार्ग) बतलाने धर्मनिति (मानव जीवन का बोध) व गुरू बालकदास जी को राजनिति (मानव समाज को संगठित कर सामुदायिक विकास व शासन में सहभागिता) पर चलनें कहा।

वैवाहिक जीवन - गुरू बालकदास जी की पत्नी क्रमशः नीरामाता व राधामाता जी थी। जिनसे नीरामाता से गंगा व गलारा नाम की बेटी तथा राधामाता से गुरू साहेबदास जी एक ही पुत्र की प्राप्ति हुई, गुरू साहेबदास जी अल्पायु में ही सतलोक को चले गये।

सतनाम आन्दोलन - गुरू बाबाघासीदास जी की आज्ञा पाकर बाबा जी के सतनाम आन्दोलन को आगे बढ़ाने की वृहत रणनीति तैयार कर गुरू बालक दास जी द्वारा संत जनों को संबोधित करतें हुए कहा कि मेरे जगत के संतों मै अपने पिता के सत संदेश 42 वाणी, 7 उपदेश और 34 अक्षर के शब्दो को साकार करनें का प्रयास करूगा । सतनामधर्म की ओर गुरूगद्वी,सफेद पालो,को अजर अमर बनानें के लिए हम अपनें गुरू वंशज पीढ़ी को बलिदान करनें हेतु तैयार रहेगें,साथ में संत समाज के संगठन शक्ति से तन,मन धन के साथ संधर्ष करना पड़ेगा। गुरू घासीदास के वंशज सर्वोच्च (नेतृत्वकर्ता) पद पर आशीन होगा।

सतनाम संविधान - गुरू बालकदास जी ने सर्वप्रथम भारतदेश के समय कालनुसार समाज को सतनाम सुत्र में बाधने स्वतंत्र, समानता, एकता, धर्मरक्षक, सुरक्षाव्यवस्था, अर्थ,न्याय,दण्ड व सामाजिक रिति-रिवाज पर संवैधानिक नियमावली बनाकर कार्ययोजना व्यवस्था को सुचारू रूप से चलानें हेतु राजमंहत, जिलामंहत, तहसीलमंहत, भंडारी व छड़ीदार पद पर गुरू बालकदास जी ने योग्य लोगों की नियुक्ति कर उन्हे क्रमशः राज, जिला, तहसील, अठगंवा व ग्राम स्तर की जिम्मेदारी प्रदान किया गया । गुरू बालकदास जी सतनामी समाज के संविधान का निर्माता है।

सतनाम राऊटी - गुरू बालकदास जी अपने सहयोगी राजमंहतो, भण्डारी, छड़ीदारों व समाज सेवको को साथ लेकर अपने संतों को उपदेश देने सतनामधर्म प्रेमी लोगो व सामाजिक संगठनों एकता के सुत्र में बाधनें बिलासपुर, रतनपुर, रायपुर, सिरपुर, रायगढ़, सारंगगढ़, कर्वधा, कांकेर व बस्तर सहित पूरे मध्य भारत में सतनाम राऊटी किया गया। राऊटी में गुरू बालकदास जी सतनाम की झण्डा को कभी झूकनें नही देगें की बोध संत समाज को कर्तव्य बोध कराते थे।

राजा के पदवी - बालकदास गुरू जी अपनें पिता संत शिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के विचार सतनाम संदेश को जन जन तक पहुचाया व समाजों में हो रहे मानवीय पशुगत अत्याचार, अनाचार, दुव्र्यवहार को रोकने सामाजिक पंचायत का गठन कर समाज में पांच पंच, मंहत, भण्डारी, छड़ीदार राजमंहत का व्यवस्था ग्राम, अठगंवा, ब्लाक, तहसील, जिला व राज स्तर पर सामाजिक विकास व न्याय व्यवस्था का संचालन किया गया। गुरू बालकदास जी द्वारा स्थापित व संचालित सुशासन व्यवस्था प्रणाली से जनता शांति तथा एकता के साथ हजारो लोगो सतनामधर्म पर आस्था प्रकट करनें वालों का कारवा बनाता गया। गुरू बालकदास जी के शौर्य गाथा से प्रभावित तत्कालीन ब्रिटिश शासन के द्वारा सन् 1820 में राजा की उपाधी प्रदान कर गुरू को हाथी, घोड़ा, अस्त्र-शस्त्र व सोने की तलवार भेट कर सह्नत्र सेना रखने की अनुमति प्रदान किया गया। सतनामधर्म के अनुयायीओं द्वारा राजा की पदवी लेकर लौट रहे गुरू बालकदास जी का भण्डारपुरी में एैतिहासिक स्वागत आवभगत किया गया। स्वागत यात्रा गुरू निवास भण्डारपुरी पहुचने तक एक विशाल सभा का रूप ले लिया जहा, संतशिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी व राजागुरू बालकदास जी का दर्शन एंव आर्शिवचण संत समाज के लोगो को प्राप्त हुआ, जिसे विजयोत्सव व गुरूदशर््न मेंला की संज्ञा दिया गया। राजागुरू द्वारा सन् 1820 में भण्डारपुरी धाम व तेलासी बाड़ा का निर्माण प्रारंभ किया गया।

उस समय( छत्तीसढ़ में ) ब्रिटिश अधिक्षक एगन्यू 1818 से 1825 तक अंग्रेज शासन का सुत्रपात व नियंत्रण करने के प्श्चात अपने पद से त्यागपत्र दिया,उसके बाद क्रमश: कैप्टन हंटर कुछ माह अधिक्षक रहे तत्पश्चात मि. सेन्डीस 1825 से 28 तक रहे फिर विलकिंसन और क्राफर्ड 1828 से 1830 रहे । इसके बाद बारह वर्षो के नियंत्रण के पश्चात एक बार पुनः छत्तीसगढ़ अंग्रेजी हुकुमत से मुक्त होकर मराठो के अधिन चला गया।

राजा व गुरू - गुरू बालकदास जी दशो इंद्रिया मन, चित, बुद्वि, अहंकार, क्रोध, काम, मोह, लाभ, जाति,पाति पर विजय प्राप्ति केसाथ ही दस नितियों वेषभूषा, आसन, आहार, त्याग, तपस्या, व्यवहार, पुजा, बल (सेना), नियम (संविधान ), सम्मान (पवित्र जैतखाम) को अपने स्वभाव में अपनाकर मानव समाज को शिक्षा,विकास व स्वाभिमान का संदेष दिया। गुरू बालकदास जी के गुरू व राजा के पद अनुरूप मौजुदा मानव समाज में उनके प्रभाव दिखने लगे थे, वे एक विषाल समुदाय के नेतृत्वकर्ता बनकर उभरे व अपने संगठन की शक्ति के कारण उच्चवर्गो को चुभने लगा तब ये लोग साजिश पुर्वक ब्रिटिष शासन काल के अधिकारियो को संतशिरोमणी गुरू बाबाघासीदास जी, तपस्वीगुरू अमरदासजी व राजागुरू बालकदास जी के विरूद्व भड़काने लगे।

भारत के आजादी में राजागुरू की क्रांतिकारी पहल - इस समय काल 1857 भारत में ब्रिटिश के विरूद्व आजादी की लड़ाई की शुरूआत हो चूकी थी। राजागुरू बालकदास जी भी भारत के आजादी हेतु पहलकर उस समय रामत करके समाज की संगठन शक्ति को बढ़ाने के साथ ही साथ आजादी की लड़ाई के लिए सतनामधर्म के अनुयायीयों को आगे लाकर लोगो की मनोबल बढ़ाकर क्रांतिकारी पहल किया । राजागुरू बालकदासजी का देशपे्रम अंगे्रजी हुकुमत व उनके दलालो को खटकने लगे थे व उनकी हत्या करने के लिए योजना व कुचक्र चालपास कसना शुरू कर दिया।

राजागुरू का सतलोक गमन - राऊटी की अगली कड़ी में राजागुरू का 1860 ई. को मुगेली क्षेत्र हुआ,तथा रूकने का पढ़ाव औराबांधा में रखा गया था। जहा 28.03.1860 को राजागुरू बालकदास जी द्वारा सतनाम सभा में एकत्रित संत समाज के हजारों लोगों को सतनाम संदेश, उपदेष में स्वाभिमान व देशहीत में सभी धर्म के लोगों को एकजूट होने का संदेश दिया व रात्री विश्राम के दौरान योजनाबद्व तरीके से स्थानीय समाज द्रोही शोषक जाति के लोगों से साठगाठ कर हथीयारबद्व सतनाम के दुशमनों द्वारा राजागुरू की हत्या करनें अचानक ही हमला कर दिया। हमले का जवाब राजागुरू के अगुवाई में विशेष सहयोगी सरहा व जोधाई तथा उपस्थ्ति कुछ गुरू भक्तों ने यथा संभव जवाब दिया लेकिन भारी सख्या में दुशमनों पलड़ा भारी पड़ गया। इस लड़ाई में सत्य अहिंसा के पुजारी गुरू बाबा घासीदास जी के लाडले पुत्र राजागुरू अपने सहयोगियों के साथ बलिदान हो गये।

अगले दिन सुबह राजागुरू के हत्या का समाचार चारो दिशाओं में आग की तरह फैल गई, भण्डारपुरी में खबर पाते ही धैर्य खोकर समस्त परिजन व सतनामधर्म के अनुयायीगण शोक के समुद्र में डुब गये। सबके सामनें मानो संकट का पहाड़ टूट गया था, राजागुरू के सतलोक गमन से पुरा गुरू परिवार को गहरा आघात् लगा। समाज के कल्याण कार्य हेतु कर्तव्य पालन करते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले स्वाभिमानी बलिदानी राजागुरू बालकदास जी के अधुरे कार्यो को पुरा करने संत शिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी द्वारा संत समाज के आग्रहनुसार अपने तृतीय पुत्र गुरू आगरदास जी को सत्य के विधान अनुसार गुरूगद्दी (राजागुरू) का पदभार सौपते है।

तब से लेकर सतनामी संत समाज के द्वारा आज भी भण्डारपुरी व अगमधाम खडुवापुरी में पावन विजयदशमी को सतगुरू दर्शन मेंला में गुरूगद्वीनसीन गुरू बाबाघासीदास जी के उत्तराधिकारी पाचवें वंशज पुज्यनीय जगतगुरू राजागुरू श्री विजयकुमार जी, जगतगुरू रूद्रकुमार जी व गुरू बाबा रीपुदमन अपने राज मंहतो, भण्डारियों, छड़ीदारों को साथ लेकर भव्य ऐतिहासिक सतनाम शोभा यात्रा में अस्त्र-शस्त्र, अखाड़ा, पथी गीत नृत्य, व सोने की तलवार, बर्छी, भाल-फर्सा, विभिन्न कलाकार की मनमोहक कलाओं के साथ विशाल विजय जुलुस निकाला जाता है, जुलुस मुख्य कार्यक्रम स्थल में पहुचते ही सत्संग सभा में तब्दील हो जाति है। जहा लाखो श्रद्वालुओ गुरूदर्शन व आर्शिवचण का लाभ उठाते है।

प्रतापीगुरू आगरदास जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंशज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - गुरू बाबाघासीदास जी व माता सफुरा के तृतिय पुत्र गुरू आगरदास जी का जन्म 1803 को अगहन मास शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि प्रातःकाल मंगलवार को हुआ। सत्यवंश में जन्मे गुरू आगरदास जी बचपन से ही सत की महिमा व उनके गुणो का संस्कार को अपने जीवन में आत्मसाथ किया,तथा अपने पिता व भाईयो की तरह वे भी सतनाम के प्रचार कर मानव कल्याणकारी कार्य किया करते थे । गुरू आगरदास जी की पत्नी का नाम मुटकीमाता (विवाह सन् 1832) निवासी रतनपुर थी। जिनकी गोद से पुत्र गुरू अगरमनदास जी अवतरित हुए।

राजागुरू का पदभार - घासीदास जी द्वारा संत समाज के आग्रहनुसार अपने तृतीय पुत्र गुरू आगरदास जी को सत्य के विधान अनुसार 28 अप्रैल 1860 को गुरूगद्दी का (राजागुरू) पदभार सौपा गया।

सतनाम शक्ति दरबार का निर्माण - गुरू आगरदास जी, बलिदानी राजागुरू बालकदास जी के पुत्र गुरू साहेबदास जी के साथ मिलकर अपने पिता व भाईयो के द्वारा स्थापित अधुरे सतनाम शक्ति दरबार केन्द्रो क्रमशः बोड़सरा के गद्दी,भण्डार के गद्दी, तेलासीपुरी गद्दी व महलो के निर्माण कार्यो को 1862 में पुनः प्रारंभ किया। तथा सतनाम के प्रतिक चिन्ह पवित्र जैतखाम के प्रतिरूप में सभी सतनामधर्म के आस्था रखनें वालों को अपनें अपनें घरो के आंगन में दुरपत्ता 18 दिसंबर 1862 भण्डारपुी में स्थापित कर गुरू पर्वो पर सफेद पालो चढ़ाने का फरमान जारी किया गया, उसके बाद से ही सतनाम धर्मावलंबियो के द्वारा हर घरो में दुरपत्ता स्थापित कर हिंसा व नशापान का त्याग कर किया गया।

मानवता का अधिकार - सर्वप्रथम गुरू आगरदास जी नें संत शिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के सतविचार “मनखे मनखे एक समान“ संदेश को मानव अधिकार से तात्पर्य किसी भी जाति, धर्म, लिंग व भाषा के भेदभाव को नकारते हुए सभी लोगों के समुचित शिक्षा, रहन-सहन, जीवन-यापन, मान-सम्मान, समुचित उत्थान, विकास तथा सुरक्षा व्यवस्था के लिए जगह जगह धर्मसभाओं के माध्यम से जागरूकता का अभियान संतजनों को साथ लेकर चलाया गया। राऊटी के समय गुरू आगरदासजी को देखने व सुनने लोगो का हुजुम गुरूदर्शन मेंला स्थल में परिर्वतित हो जाती थी। गुरू आगरदास जी अपनें उपदेशो में मानव जीवन का सार सतनाम है, अतः प्रत्येक कार्य को सतनाम के नियमांनुसार करनें संत समाज को शिक्षा देते थे।

पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाहन - संत शिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के एकांतवास 1861 के दौरान राजागुरू आगरदास जी ने अपनी छोटी बहन आगरमती के विवाह के कुछ समय बाद ही अपनें भतिजे गुरू साहेबदास जी पिता बलिदानी राजागुरू बालकदास जी का विवाह समस्त गुरू परिवार के सहमति से गुरू साहेबदास व करणी (कर्रीमाता) के साथ सतनामधर्म के रीति-रिवाज के अनुसार समपन्न करवाया। गुरू साहेबदास को संत व महंतों के साथ मिलकर गुरू गद्दी बोड़सराधाम की संचालन व्यवस्था कार्य सौपा।

गिरौदपुरीधाम में कलश व पालोचढ़ावा (1862) - संतशिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के तपोभूमि गिरौदपुरीधाम में निर्मित जैतखाम, मंदिर पर सर्वप्रथम गुरू आगरदास जी गुरू परिवार की माताए मुटकीमाता, राधामाता, नीरामाता, प्रतापुरहीनमाता व गुरू साहेबदास जी, राजमहंत, दीवान, भण्डारी, छड़ीदार सहित सतनामर्ध के संत समाज का विशाल जनसमूह की मौजूदगी में भण्डारपुरी से तैयार करवाकर साथ लाये गुरू सतनाम प्रसादी, सोना व पीतल (पंचरत्न) के कलश, सफेद पालो को सतनाम के विधि-विधान से आरती कर (सन् 1862) माघ पूर्णिमा को राजागुरू आगरदास जी जैतखाम में पालो चढाया व गुरू साहेबदास जी मंदिर में कलश चढ़ाया गया।

युवराजगुरू साहेबदास जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंशज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - बलिदानी राजागुरू बालकदास जी व राधामाता से (जन्म सन् 1844) गुरू साहेबदास जी नाम के एक ही पुत्र की प्राप्ति हुई। गुरू साहेबदास जी अपनें पिता व सतवंश परिवार के समान ही तेज व गुणी थे। बलिदानी पिता के सत लोक गमन के पश्चात् अपने चाचा राजागुरू आगरदास जी के कुशल मार्गदर्शन में समाजनों के बीच अपने दादा गुरू बाबा घासीदास जी के सत्य अहिंसा व प्रेम तथा मानवता जैसे सतनाम के संदेश-उपदेश का प्रचार प्रसार कर सहयोग विचार एक मत से सभी अधुरे कार्यो तथा संत समाज जनों के अन्य मागों पर सतनाम के संविधान के अनुरूप 1862 में प्रारम्भ किया।

वैवाहिक जीवन - बलिदानी राजागुरू बालकदास जी के सतलोक गमन हुए तब गुरू साहेबदास जी मात्र 16 वर्ष की आयु थे। राजागुरू आगरदास जी ने समस्त गुरू परिवार के सहमति से 17 वर्ष की उम्र में ही गुरू साहेबदास का करणी (कर्रीमाता) के साथ सतनामधर्म के रीति-रिवाज के अनुसार सन् 1861 को विवाह समपन्न करवाया। गुरू साहेबदास जी का कोई संतान नही हुए।

सामाजिक कार्य - गुरूगददीनशीन राजागुरू आगरदास जी के मार्गदर्शन में गुरू साहेबदास जी अंगरक्षक,सतनामीसेना राजमंहत,भण्डारी व छड़ीदार संयुक्त रूप से अनेको बार सतनाम राऊटी कर प्रत्येक गावं,नगर व शहर में मानव कल्याण हेतु सतनाम के नियमावली अनुसार दलित,पिडि़त व शोषित जनों को संगठित किया। साथ ही प्रत्येक मानव जाति को सतनामधर्म धारण करवाकर संतशिरोमणी पुज्यनीय गुरू बाबा घासीदास जी के सात उपदेशो का पालन करवाया।

बोड़सराधाम गुरूगद्दी - राजागुरू आगरदास जी अपने भतिजे गुरू साहेबदास जी की कार्य कुशलता को देख उन्हे गुरूगद्दी बोड़सरा की जिमंेदारी दिया गया। गुरू साहेबदास जी अपनें परिवार व स्थानीय मंहतो भण्डारी को साथ लेकर सर्व प्रथम जहा अपनें पिता बलिदाली राजागुरू बालकदास जी सहित अंगरक्षको, सतनामधर्म वीरो की शहादत स्थल पहुचकर उन्हे नमन करते हुए प्रमाण चिन्हों को संरक्षित करवाया उसके बाद बोड़सरा में निवास कर गुरूगद्दी बोड़सरा के महलबाड़ा, नौ प्रमुख सतनामशक्ति केन्द्र क्रमषः बोड़सरा,खुटियाडीह,कुआ,झाल,बुंदेला,पिरैया, नगाराडीह व कनेरी का समुचित देखभाल किया तथा प्रत्येक गांव के मुक्तियार और खभारियों का नियुक्ति कर नियमित कार्य संचालन, सुरक्षा व्यवस्था बनवाया।

तेलासीपुरीधाम में कलष व पालोचढ़ावा (1868) - तेलासीपुरीधाम में तपस्वी गुरू अमरदास जी के समाधी स्थल पर राजागुरू आगरदास जी व गुरू साहेबदास जी ने संत समाज को संयुक्त सतनाम उपदेष देकर समाधी स्थल पर गुरूद्वारा निर्माण का षिलान्यास (सन् 1862) किया था। गुरूद्वारा निर्माण,बाड़ा के दिवाल व चारों दिषाओं में चार विषाल गेट द्वार का निर्माण कार्य पुर्ण होते ही तेलासीपुरी निवासियो व राजमंहतो एवं संत समाज जनो से विचार विर्मष कर राजागुरू आगरदास जी सतनाम कलष व पालो चढावा कार्यक्रम तय किया साथ ही गुरू साहेबदास जी को कार्यक्रम में शामिल होने का संदेष भिजवाया । तेलासीपुरीधाम में सतनाम ज्योति कलष व पालो चढावा का समाचार मिलते ही गुरू साहेबदास जी बोड़सराधाम के सभी मुक्तियार और खभारियों को जिम्मेदारी सौपकर सह परिवार तेलासीपुरीधाम पहुच गये। गुरू पुर्णिमा के दिन (सन् 1868) राजागुरू आगरदास जी व गुरू साहेबदास जी द्वारा गुरू माताओं,राजमंहत,भण्डारी,छड़ीदार, संत समाज जनसमूह की अपार भीड़ के बीच सतनाम पुरूष गुरूगद्दी व पवित्र जैतखाम का विधि-विधान से आरती चैका कर गुरूद्वारा में कलष व जैतखाम में पालो चढ़ाया गया। पालो चढ़ते ही सतनाम की जयघोष से समुचे तेलासीपुरी धाम सतनाम मय हो गया था। तब से लेकर आज भी तेलासीपुरीधाम में गुरू पुर्णिमा के दिन तपस्वीगुरू अमरदास जी के जंयती के अवसर पर खीर प्रसाद भण्डारा विधि पुर्वक चढ़ाया जाता है।

गुरू साहेबदास जी के अंतिम सतनाम संदेष व सतलोक गमन - तेलासीपुरीधाम में कलष व पालोचढ़ावा के कार्यक्रम निपटने के कुछ महिने पष्चात गुरू दरबार में संत समाज को गुरू साहेबदास जी सतनाम की महत्ता समझाते हुए कहा कि मनुष्य की जन्म, युवा, बुढ़ापा व मृत्यु भी एक सत है,इस संसार में सतनाम ही एक सार वस्तु है, सद्भाव से कर्म करने पर वह कार्य सद्कार्य हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य को संतषिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के बतलाये सात सुख क्रमषः-धैर्य, क्षमा, करूणा, दया, मृदुवाणी, अद्वेष तथा शुचिता ये साधन को दैनिक जीवन में अपनाने कहा।तेलासीपुरीधाम गुरू दरबार में दिया गया गुरूवाणी सतनाम संदेष के कुछ दिनों के पष्चात ही गुरू साहेब दास जी 24 वर्ष के उम्र में ही सतलोक (सन् 1868) को चले गये।

धर्मवीर गुरू अगरमनदास जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - गुरू बाबाघासीदास जी व माता सफुरा के तृतिय पुत्र गुरू आगरदास जी पत्नी मुटकीमाता के गोद से गुरू अगरमनदास जी सन् 1875 में अवतरित हुए। सतनाम की असीम कृपा से गुरू अगरमनदास बाबा जी अपने परिवार की सदस्यो की तरह ही धर्म व समाज की चिंतन करते हुए पला बढ़ा। युवा अवस्था में पहुचते ही अपने पिता प्रतापीगुरू आगरदास जी के सामाजिक कार्यो में हाथ बटाते थे। 20 वर्ष की आयु में गुरू अगरमनदास बाबा का विवाह कनुकामाता जी के साथ (सन् 1894) हुआ। गुरू अगरमनदास बाबा व कनुकामाता जी के गोद से गुरू अगमदास जी का जन्म हुए।

राजा व गुरू पद का कर्तव्य निर्वाहन-गुरू अगरमन दास जी ने अपने पिता के बाद राजा व गुरू पद के कर्तव्य निर्वाहन किया वे भी अपने दादा संत गुरू बाबाघासीदास जी के समान 1.सामाजिक 2.आर्थिक 3.जाति व्यवस्था 4. अंधविष्वास के चार प्रकार दुख पर पर मानव समाज के कल्याण के विषय में मनन चितंन करते रहते थे,गुरू अगरमनदास जी मनुष्य समाज को आदर्ष समाज रचना व चरित्र-निर्माण का पाठ देकर उसे सच्ची सुख-षांति का मार्ग दिखाया। गुरू अगरमनदास जी की बुद्वि-चातुर्य व कार्य कौषल बेमिषाल था जिसका लाभ सतनामधर्म के सभी अनुयायी को मिला, गुरूजी अपने लगन के पक्के व स्वाभिमानी थे। गुरू अगरमनदास जी के अगुवाई में पुनः राजमंहत, भण्डारी,छड़ीदार व समाज सेवको का विस्तारीकरण हुआ तथा समाज के सभी समपन्न मालगुजार लोगो की बैठक कर उन्हे अपने गांव,कस्बा व शहर में निर्धन किसान,मजदूरो की आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिषा में कार्य करवाया जिसके चलते प्रदेष में सतनाम धर्म से जुड़े लोगो के जीवन स्तर में सुधार आया साथ ही सतनाम धर्म के लोग एकता के सुत्र में बंधते गये। समाज में एकता होने से सतनाम की शक्ति के साथ गुरू अगरमन दास जी की यषकीर्ति तेजी के साथ प्रचारित व विस्तारित हुआ।

धर्म व राजनिति - गुरू अगरमनदास जी धर्म व राजनिति की संयुक्त जिम्मेदारी का निर्वाहन करते हुए समाज के लोगो को षिक्षा, कृषि व समाज कल्याणार्थ में आगे लाया एवं समयकालिन शासक के असमतामूलक सामाजिक व्यवस्था व अमानवीय अत्याचार तथा शोषण के खिलाॅफ निति व न्यायपूर्वक लड़ाई लड़ने सतनाम के विचार धारा पर विषवास रखने वाले लोगों व अलग अलग धार्मिक सामाजिक व राजनितिक दलो संगठनो से संबध स्थापित कर गुरू अगरमनदास जी देष की आजादी के लिए धर्मसभा का आयोजन व जगह जगह राऊटीकर सतनाम की सेना व लोगो को मातृभूमि भारत माता के लिए उनके कर्तव्यों का बोध कराया जाता था। गुरू अगरमनदास जी द्वारा देषहीत में किये गये आह्नवान पर स्वतंत्रता संग्राम में सतनामधर्म के अनेको लोगों ने अपनी प्राणों की आहुति दी,षहीद हुए समाज के वीरों की सैकड़ो पिडि़त परिवार महिलाओ व बच्चो को गुरू दरबार के नियंत्रण व मार्गदर्षन से समाज की मुलधारा में जोड़कर उनका जीवन का उत्थान व विकास किया गया। गुरू अगरमन दास जी ने सतनामी समाज को षांति व प्रेम की निरझणी की संज्ञा देते हुए प्रयास करनें पर सफलता जरूर मिलनें की बात कही।

सतलोक गमन - गुरू अगरमनदास जी धर्म समाज की चिंता व मानवकल्याण कारी के सोच विचारधारा रखने वालों को समाज के युवावर्ग को सतनामी सेनादल बनाकर अंग्रेजों के द्वारा चला रहे कसाईखाना के विरूद्व आवाज उठाने की जिम्मेदारी दी गई। जिसकी अगुवाई राजागुरू के उत्तराधिकारी गुरू अगमदास जी ने किया,वह अपने साथ नई नियुक्ति हुए राजमंहत नयनदास सहित 108 मंहतों को लेकर गोहत्या कर रहे अंग्रेज षासन के विरूद्व जनआंदोलन किया तथा कोर्ट में केस दायर किए गया ,विरोध को दबाने की मंषा से अंग्रेजी षासन के द्वारा राजमंहत नयनदास सहित अनेको गौ भक्तों को जेल में बंद कर दिये। इसके पष्चात सतनामी समाज और उग्र प्रदर्षन करनें लगा, लम्बी पेषी चलने के बाद केस को जीत गया व षर्तनामा लिखा लिया कि जहा जहा पर सतनामी समाज के लोगों का निवास स्थान है,वहा कोई कसाई खाना नही होगा। इस प्रस्ताव को अंगे्रज षासन नें स्वीकार किया। इसके बाद गुरू अगरमनदास जी के आदेषानुसार पुनः गुरूपुत्र अगमदास जी की अगुवाई में राजमंहतों को साथ समाज के विकास व एकता हेतु जगह जगह राऊटी कर जनेऊ,कण्ठी पहनाकर संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के उपदेष वाणी को साकार किया तथा सतनामधर्म व राजकार्यो के नियम उपनियम विस्तारपुर्वक संत समाज को बतलाया। देष आजादी के लिए स्वंत्रता संग्राम आंदोलनकारीयों के आहवान पर गुरू अगरमन दास जी जून 1923 को नागपुर के झण्डा सत्याग्रह सभा में षामिल होकर लौटने के कुछ दिन के बाद सतलोक गमन हो गया।

गुरूगोसाई अगमदास जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ/सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय- गुरू बाबाघासीदास जी से गुरू आगरदास (तृतीयपुत्र) श्री गुरूआगरदास से गुरू अगरमन दास, श्री गुरू अगरमनदास जी व कनुका माता से चैथा वंषज गुरू अगमदास जी का जन्म ग्राम तेलासी में सन् 1895 को हुआ था । गुरूगोसाई अगमदास जी का जीवन चरित्र समस्त मानव समाज के लिए प्रेरणादायी है। गुरूगोसाई का प्रथम विवाह पूर्णिमामाता 1915, द्वितियविवाह सुमरितमाता 1927,तृतीय विवाह ममतामयी मिनीमाता 1932 व चतुर्थ विवाह रतिराम मालगुजार की सुपुत्री करूणामाता के साथ 1935 में हुआ था। गुरूगोसाई ने चार विवाह वंष विस्तार समस्या (पुर्व पत्नीयों के निसंतान होने )के चलते किया। काफी लंबे समय के अंतराल के बाद सतपुरूष गुरूबाबा घासीदास के असीम कृपा आर्षिवाद के फलस्वरूप गुरूगोसाई अगमदासजी व राजराजेष्वरी करूणामाता के गोद में सत्यांष का विजयगुरू उर्फ अग्रनामदास जी के रूप में इस धरती में अवतरण हुआ।

सामाजिक कार्यो में सहयोग - गुरू अगमदास जी अपनें पिता श्री गुरू अगरमनदास जी के सामाजिक राजनैतिक व समाजोत्थान के कार्यो में सहयोग के साथ ही समकालिन ब्रिटिष षासन, तथा सामंतवादियों के जुल्म अत्याचार के खिलाफ सतनामी समाज के युवाओं को जोड़कर सतनामी सेना को मजबुती प्रदान किया गया। एवं अपनें पिता के निर्देषानुसार समाज के योग्य मेहनती व विवेकी लोगों की सुचीबद्व विवरण तैयार कर 108 मंहतों की नियुक्ति प्रदान कर उन्हे सामाजिक व्यवस्था संचालन व कर्तव्य पद पालन की जिम्मेदारी दिया गया। साथ ही कण्ठी जनेऊ और चंदन तिलक सतनामियों की पहचान है, सफेद झण्डा समाज की षान है को गुरूगोसाई अगमदास जी ने चरितार्थ किया।

समाज संचालन व राऊटी - श्री गुरू अगरमनदास जी की सतलोक गमन के पष्चात समाज संचालन/पथप्रर्दषन की संपूर्ण जिम्मेदारी जुलाई 1923 से गुरू अगमदास जी के उपर आ गया। गुरूगोसाई अगमदास जी पदग्रहण के बाद ही भण्डारपुरी में सतनामी समाज के राजमंहतो भण्डारीयों, छड़ीदारो, राजनैतिक, सामाजिक कार्यकताओं के साथ सभी सतनामधर्म के अनुयायीयों की विषाल आमसभा का आयोजन कर पूर्व गुरूओं के अधुरे सभी कार्यो को पुरा करनें के अलावा समाज के विकास हेतु अनेको निर्णय लिए गये। कुछ दिन बाद राऊटी में गुरूगोसाई अगमदास जी ममतामयी मिनीमाता को साथ लेकर समाज को संगठित करनें सफेद ध्वजा अपने गाड़ी में बांधकर सभी राजमंहत प्रमुख रूप से राजमंहत रतिराम, दिवान नरभूवनलाल, भूजबलमंहत, भण्डारीयों, छड़ीदारो, राजनैतिक, सामाजिक कार्यकताओं को साथ लेकर राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यदषा सुधार करनें, षासन प्रषासन से सभी स्तर पर अधिकार पाने व दिलाने का संवैधानिक कार्य किया गया।

गौहत्या बंद व कानपुर में गुरूगोसाई सम्मान - बाबा गुरूघासीदास जी के जीवन आदर्षो को आत्मसात कर गुरू अगमदासजी ने सतनाम पंथ के व्यापक विस्तार एवं कुरितियों के षमन करनें में अभूतपूर्व योगदान दिया, गुरू अगमदास जी अपने साथ नई नियुक्ति हुए राजमंहत नयनदास सहित 108 मंहतों को लेकर गोहत्या कर रहे अंग्रेज षासन के विरूद्व जनआंदोलन किया तथा कोर्ट में केस दायर किए गया, विरोध को दबाने की मंषा से अंग्रेजी षासन के द्वारा राजमंहत नयनदास सहित अनेको गौ भक्तों को जेल में बंद कर दिये। इसके पष्चात सतनामी समाज और उग्र प्रदर्षन करनें लगा, लम्बी पेषी चलने के बाद केस को जीत गया व षर्तनामा लिखा लिया कि जहा जहा पर सतनामी समाज के लोगों का निवास स्थान है, वहा कोई कसाई खाना नही होगा। इस प्रस्ताव को अंगे्रज षासन नें सन् 1922 में स्वीकार किया। उसके बाद भी कलक्ता के बुचड़खाना संचालको के द्वारा बलौदाबाजार तहसील के ग्राम करमण्डीह व ढाबाडीह में कसाईखाना खोल रखा था इन कसाईखानों में रोजाना हजारो की सख्या में गोवध किया जाता था जिसका गुरू अगमदास जी ने पुरजोर विरोध कर बुचड़खानों को हमेषा के लिए बंद करवाया। सन् 1924 को कानपुर में आयोजित कांग्रेस राष्टीय महासभा में देष के महानतम विभूतियो पंडित मदनमोहन मालवीय,लाला लाजपतराय,मोतिलाल नेहरू,डाॅ. मूजय ने गुरू अगमदास जी का सम्मान कर जनेऊ भेट कर गुरूगोसाई नाम से अलंकृत कर गुरूगोसाई अगमदास को केवल सतनामधर्म ही नही वरण सभी वर्ग के लोगो का गुरूगोसाई, समाज सुधारक व गौ माता का सच्चा सपूत कहा।

सतनामी जाति की मान्यता - गुरू अगमदास जी ने ही सतनामी समाज से संबधित सज्जनों को सतनामी नाम से सम्मान पुर्वक संबोधन,जानने,पहचान हेतु सी.पी.बरार तत्कालीन के गर्वनर को सन् 1924 पत्र लिखा था जिसे गर्वनर स्वीकार करते हुए 1926 को तदाषय सतनामी जाति / सतनाम समुदाय के मान्यता पर महत्वपूर्ण आदेष जारी किया तथा कानूनी वैधता मिलने से सतनाम धर्म के मानने वाले लोगों को अपनी जाति सतनामी नाम का पहचान मिला। गुरूगोसाई अगमदास जी के द्वारा सवैधानिक रूप से कराये गये कार्यो में यह कार्य समाज को एक सुत्र में बाधने के लिए महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ।

मानद सांसद की उपाधी - गुरूगोसाई अगमदास जी बाबा गुरूघासीदास जी के बतलाये हुए विचारो का अनुषरण करते हुए सत्य, दया, धर्म, महानषीलता, परोपकारी गुण के साथ स्वाभीमान की भाव को बनाये रखा, छत्तीसगढ़ सहित पुरे मघ्य भारत में गुरूगोसाई की ख्यााति एक प्रखर आंदोलनकारी,समाजसुधारक के रूप में फैली। 1923 में अंग्रेज षासन के खिलाफ झण्डा सत्याग्रह आंदोलन नागपुर में पं.सुन्दरलालषर्मा, पं.रविष्ंाकर षुक्ल व ठाकुर प्यारेलालसिह के साथ संयुक्त नेतृत्व किया। गुरू अगमदास जी सर्वसमाज को साथ लेकर जनजागृति व सामाजिक समानता की स्थापना हेतु राष्ट्रीय स्तर पर जन आंदोलन कर अपने सतनाम उद्वेष्य योजना में सफलता हाषिल किया। तत्कालिन ब्रिटिष षासन गुरूगोसाई के नेतृत्व क्षमता व उत्कृष्ट प्रदर्षन तथा लोगो का अपार जनसमर्थन देख सन् 1925 में सी.पी. बरार कौषिल के अंग्रेज षासन काल में मानद सांसद की उपाधी प्रदान किया। गुरू बालकदासजी को राजा की उपाधी के बाद ब्रिटिष षासन काल में ही गुरू अगमदास जी को मानद सांसद की उपाधी मिलना सतनामधर्म के अनुयायीओं के लिए ऐतिहासिक पल रहा।

मानवकल्याण - गुरूगोसाई अगमदास जी ने अपंग,अनाथ बेसहारा, महिला और बच्चों के कल्याण हेतु निज खर्चो से अनेको आश्रम, सेवाकेन्द्रो की स्थापना कर उनकी भोजन, कपड़ा, षिक्षा, आवास के अन्य बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाया। इसके साथ ही सन् 1924 से लेकर 1938 तक देष की स्वतंत्रता, सामंतिषोषण का विरोध व औद्यौगिक श्रमिकों के हित के लिए छत्तीसगढ़ मष्यप्रांत के अलावा पुरे देष भर में चल रहे द्वितिय,तृतीय किसानों श्रमिको व मजदूरों के आंदोलनो में भाग लेकर आंदोलन को मुखर नेतृत्व दिया । उस समय काल में विविध वर्गो के आंदोलनकारियो जिनमे प्रमुख रूप से श्रमिक व सहकारिता के सुत्रधार ठाकुरसाहब, पं.सुंदरलालषर्मा, बाबूछोटेलाल,नत्थूराम (धमतरी), नरसिंहअग्रवाल, सरयूप्रसाद अग्रवाल, वासुदेव देषमुख, पं.रत्नाकर झा (दुर्ग) सहित अनेको नेतृत्वकर्ताओ के साथ किसानो का लगातार प्रर्दषन व धरना का लाभ यह हुआ कि षासन ने ग्रामिणों के निस्तारी अधिकार को एक सीमा में स्वीकार किया और इस संबध में कानून निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई व आगे चलकर निस्तार नियम बनाए गये।

सामाजिक संविधान का विस्तार - गुरूगोसाई अगमदास जी ने बलिदानी राजागुरू बालक दास जी के द्वारा बनाये सामाजिक नियमों /सतनामधर्म के संविधान को पुनः विस्तार करते हुए मानव समाज के सर्वागीण विकास हेतु सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक, षिक्षा,स्वालम्बी,न्याय व्यवस्था,जातिमिलावा सहित अन्य जन कल्याण कार्यो के पालन /संचालन का विस्तार किया। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सतनामी समाज के द्वारा अंगीकार कर सभी क्षेत्रो में विकास की गाथा सतनामी समाज के साथ ही सर्वसमाज के लिए आज भी पथ प्रदर्षक है, जो संक्षिप्त सात सुत्र निम्न है-

1.सामाजिक नियम - परम पुज्यनीय संत षिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के सतनाम धर्म के राह पर चलना,बाबा जी के जीवनचरित्र, संदेष, विचार,वाणी का जीवन में अनुषरण कर गुरू प्रधान सतानामी समाज के मुलमंत्र “मनखे मनखे एक समान व सत्य ही मानव का आभूषण है“ को चिरकाल तक अस्त्वि में बनाये रखना प्रत्येक सतनामधर्म के अनुयायियों की जिम्मेदारी है, क्योकि सतपुरष के विधाननुसार समाज में कोई वर्ण व्यवस्था नही है, गुरू बाबा घासीदास जी के प्रति आस्था तथा सतनामधर्म को तन,मन व कर्म पूर्वक जीवन में अपनाने वाले कोई भी जाति/धर्म के लोग सतनामी समाज में षामिल किया जा सकता है। लोग अपने स्वार्थ के चलते उच्च-निच छोटा-बड़ा का भेदभाव बनाये है।
2.आर्थिक - समाज के लोगो को मुल रूप से खेती के साथ बखरी,बाग,बगीचा,गौपालन व व्यपार कर स्वालम्बी बने,अनावष्यक खर्च न करे, छोटी छोटी बचत करने तथा नौकरी मजदूरी करने से आपकी अर्थ व्यवस्था में सुधार आयेगा। अर्थ व्यवस्था की मजबूती से दैनिक जीवन में सभी जरूरत की आवष्यक वस्तु, पदार्थ, मकान,जमीन आदि के पुर्ती में आसानी होगी। समाज के संपन्न लोगों को जरूरतमंद गरीब, दीन-दुखियो,लाचार-बिमार तथा अपंगों की तन मन व धन से मदद करे जिससे परिवार व समाज विकास में आपका महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान सदैव बना रहेगा। क्योकि बिना अर्थ मजबुती के लोग / समाज की सेवा करने अथवा जीवन जीनें में अनेको कठिनाईयो का सामना करना पड़ता है।
3.राजनैतिक - सतनामी अपनी गुरू,समाज,और धर्म के प्रति अटूट श्रद्वा के कारण ही समय कालीन षासको के गलत नियमो के खिलाॅफत,मानव व पषुओं पर जूल्म अत्याचार तथा अपने स्वाभिमान की रक्षा के साथ अपने संवैधानिक अधिकारो को पाने के लिए राजनिति में सहभागिता लेना अति आवष्यक है। क्योकि संवैधानिक कई मानव अधिकारो की प्राप्ति हमें धर्मगुरूओं के कुषल राजनिति नेतृत्व के चलते मिला है। समाज के सार्वजनिक विकास हुए तथा अधिक से अधिक लोग राजनिति के चलतें अनेको उच्चे पदों पर निर्वाचित / मनोनित हुए। बिना किसी को नुकसान पहुुचाये समाज व देषहीत में राजनैतिक जीवन से समाज के साथ क्षेत्र व देष का चहुमुखी विकास होता है।
4.धार्मिक,सांस्कृतिक व नैतिक - भारतवर्ष धर्मो का भण्डार है, जिसमे हिन्दू सनातन, इस्लाम, सिख, बौद्व जैन, इसाई व सतनामधर्म प्रमुख है, सब धर्मो में अलग अलग संस्कृति का समावेष है,जिसमें अर्थ,धर्म,कर्म व मोक्ष का प्रमुख स्थान है। इन्ही में सतनामधर्म जो कि हिन्दू धर्म में ( संविधान के आरक्षण का अधिकार नियम के चलते ) समाहित होने के बावजूद अपना स्वतंत्र वजूद है, सतनामधर्म एक जाति या समुदाय के लिए नही वरण समस्त मानव व प्राणी जीव जगत के लिए है जिसका.धार्मिक,सांस्कृतिक व नैतिक नियम कल्याणकारी सादा जीवन उच्चविचार के है सतनामधर्म सभी धर्मो का सार है। संत षिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी के समय से लेकर वर्तमान समयकाल के सभी गुरू वंषजों के जीवनी सदेंष,विचार व किये गये कार्यो से मिली सतनाम संस्कृति - सत्य, प्रेम, सौहाद्र, अहिंसा, समानता, दया व उदारता जैसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। जिसमे सतनाम सांस्कृतिक विरासत,पवित्र जैतखाम, विषाल गुरूद्वारा, गुरूदर्षन मेला, सुख-दुख जीवन के रिति-रिवाज, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम, पंथीगीत, नृत्य, व्रत, गुरूपर्वो, त्योहारों व मेलों की परंपरा है जो अनवरत पूरे वर्ष चलती रहती है, गुरूगद्वीनसीन गुरूद्वारा सतनामी समाज की सामाजिक,धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के मुल केन्द्र है जो सतनामधर्म के अनुयायियों में आस्था व विष्वास का प्रतिक है। सतनाम के धरोहरो को समृद्व करनें की नैतिक जिम्मेदारी प्रत्येक सतनामी समाज जनों की है।
5.षिक्षा - सामंतवादी वर्ण व्यवस्था,जमीदारी प्रथा के चलते समाज के अधिकांष लोग षिक्षा से वंचित देख जगतगुरू अगमदास जी नें समाज के विकास व अधिकार की प्राप्ति के लिए षिक्षा को अत्यंत महत्वपूर्ण बतलाया तथा जगतगुरू जी तत्कालिन ब्रिटिष षासन व कांग्रेस संगठन को पत्राचार कर देष भर के संचालित षिक्षण संस्थानों में समाज के सभी बालक,बालिका व युवाओं को षिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रयास किया एवं अंग्रेजी हुकुमत से अनुमति मिलने पर समाजजनों तक संदेष पहुचाने जनजागरूकता अभियान चलाया। षहरो में अच्छी षिक्षा के लिए सुदुर अंचल में रहने वाले गांव के सामाजिक बच्चों को आश्रमो/अपने निवास में आश्रय प्रदान कर समाज को षिक्षित किया। क्योकि षिक्षा प्राप्ति से समाज के लोगों की प्राकृतिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक जीवन में सुधार व समृद्वि तथा योगयतानुसार निजि या षासन के विभिन्न पदो/अधिकार को प्राप्त कर सकते है। सतनामी समाज के षिक्षा नियम में मातापिता - सतनाम संस्कार, षिक्षक- अध्यापन बौधिक विकास व धर्मगुरू - जीवन का महत्व व कर्तव्य का बोध कराता है।
6.स्वालम्बन - समाज के लोगो को अपनी यहा उपलब्ध संसाधनो व वित्तीय वयवस्था के अनुसार कृषि, बाड़ी, फुलवारी, व्यवसाय, तकनिकी कार्य, लघु या कुटीर उघोग लगाने के साथ ही गौ पालन के कार्य को करने कहा गया जिससे समाज में स्वालम्बन आये व धन कमाने के साथ ही समाज के साथ अन्य लोगो को भी रोजगार मिल सकेगा। जगतगुरू अगमदासजी के बतलाये स्वरोजगार के मार्ग पर चलते हुए सतनामी समाज के लोग देखते ही देखते अपनी हिम्मत व मेहनत से सैकड़ो एकड़ कृषि जमीन के मालिक व बड़ी सख्या में मालगुजार बन गये थे । समाज जन अपना योग्यता व क्षमतानुसार षासन के योजनाओं का लाभ लेते हुए छोटी बड़ी परियोजनाओं का सफल संचालन से श्रेष्ठ कार्य कुषलता का प्रर्दषन कर धन व सम्मान अर्जित कर सकता है।
7. न्याय व्यवस्था - जगतगुरू अगमदास जी भारत के संविधान निर्माण समिति के अहम सदस्य थे। राष्ट्रीय स्तर से लेकर अतिंम छोर में बसे गाव स्तर के समाजिक न्यायायिक कार्य हेतु गुरू गदद्वीनसीन जगतगुरू अगमदास जी नें सतनामी समाज के लिए भी सामाजिक लोगो के जाने / अंजाने सभी प्रकार के निजि, पारीवारिक, सामाजिक, आर्थिक, परीस्थैतिक, अपराध, प्रषसनीयकार्य सहित अन्य समस्याओं के समाधान,दण्ड,माफी व पुरस्कार हेतु ग्राम स्तर पर समाज, पंचकमेटी, छड़ीदार व भण्डारी /अठगंवा स्तर पर समाज,पंचकमेटी,छड़ीदार भण्डारी व मंहत / जिला स्तर पर समाज पंचकमेंटी, छड़ीदार, भण्डारी,मंहत व जिलामंहत /राजस्तर पर समाज पंचकमेंटी,छड़ीदार, भण्डारी, मंहत,जिलामंहत व राजमंहत आदि की नियुक्ति किया तथा न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ कर पिडि़त को न्याय दिलाने तथा अपराध को रोकने निति बनाई गई। ग्राम,अठगंवा,जिला,राज्य व राष्ट्रीय स्तर के बैठको या सभा पर किसी भी पक्ष या विपक्ष के समस्या/ समाधान / फैसला पर विवाद या संतुष्टी नही होने की स्थिति में जगतगुरू गुरूगद्द्वीनसीन सतनामी समाज के द्वारा दिये जाने वाले निर्णय अतिंम व सर्वमान्य होगा।

गिरौदपुरीधाम में गुरूदर्षन मेला का षुभारंभ (सन्1935) - जगतगुरू अगमदास जी सतनामधर्म व सतनामी समाज के पुज्यनीय प्रथम प्रणेता संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के वाणी,विचार,संदेष तप,सतकार्यो व संतजीवन की यषकिर्ती को संसार में प्रकाषवान करने, गुरूदर्षन का लाभ मिले साथ ही सामाजिक,धार्मिक व संस्कृति प्रचार प्रसार हो समाज के लोगों में सतनाम संस्कार का संचार हो तथा समाज में एकता सदैव बना रहे,जगतगुरू अगमदास जी ने पावन तपोभूमि गिरौदपुरीधाम में सन् 1935 को गुरूदर्षन मेंला का षुभारंभ किया। गुरूदर्षन मेंला कार्यक्रम में सभी राजमंहतो के साथ सतनामधर्म के समाज जनों ने हजारो की सख्या षामिल होकर सतनामधर्म के ऐतिहासिक पल के साक्षी बने।

गिरौदपुरीधाम का विकास में जगतगुरू के योगदान - गिरौदपुरीधाम का मेंला का संचालन गुरूगद्द्वीनसीन, गुरूबाबा घासीदासजी के चैथा वंषज उत्तराधिकारी जगतगुरू अगमदास जी ने सन् 1935 से 1954 तक तत्पष्चात ममतामयी मिनीमाता व राजराजेष्वरी करूणा माता संयुक्त रूप से सन् 1960 तक गुरूदर्षन मेंला में भक्तो की बढ़ती हुई सख्या को देखते हुए उनके लिए समुचित व्यवस्था जैसे पानी, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य,आवास आदि मुलभूत सुविधाओं को लेकर 1976 में गुरू व राजमहंतो एवं समाज के द्वारा मेंला में शासन की सहयोग की आवष्यकता महसूस की गई। तत्कालीन म.प्र.शासन के द्वारा समाज के आग्रह को स्वीकार करने के पष्चात राज्यपाल के आदेषानुसार सन् 1976 में ही संत गुरू घासीदास मेंला व्यवस्था समिति का गठन कर लिया गया। समिति में राजमंहतो व सर्ववर्गीय सदस्यों की नियुक्ति की गई।समिति का सयोंजक कलेक्टर, नामिनि स्थानीय अधिकारी को बनाया गया। आज वर्तमान में गुरू बाबाघासीदास जी के चैथा वंषज गुरूगोसाई अगमदास जी के सुपुत्र जगतगुरू विजयकुमार जी मेंला समिति के अध्यक्ष है। जिनके मार्गदर्षन में गिरौदपुरीधाम का मेंला निरंतर व्यवस्थित व विकास की ओर आगे बढ़ते अग्रसर है।मेंला में तीनों दिवस सतनामधर्म,सतनामी समाज के परम पुज्य गुरूगोसाई,आदेषक निर्देषक,सचेतक,संचालक श्रद्वेय श्री जगतगुरू विजयकुमार जी, पुज्यनीय जगतगुरू रूद्रकुमार जी, पुज्यनीय गुरू रीपुदमन जी व राजराजेष्वरी कौषल माता जी अपने लाखो संतो को दर्षन व आषीष प्रदान करते है।

अगमधाम खडुवापुरी का निर्माण - जगतगुरू अगमदास जी सतनामी समाज /सतनामधर्म के विकास हेतु चारों दिषाओं में राऊटीदौरा करने से सतनामपंथ पर जनमानस का विष्वास को जीतने में अधिक सफलता पायी और अन्य समुदाय के लोगो का झुकाव सतनामधर्म में बिना किसी भेदभाव के साथ हुआ। जगतगुरू अगमदास जी ने सन् 1925 / 1937 में खडुवा ग्राम को खरीदा और क्वार दषमी के रोज संतसमाज की मौजूदगी में गुरूदर्षन मेंला लगाकर सतनाम धर्म के विधि -विधान अनुसार पवित्र जैतखाम गड़ाकर गुरूगद्वी स्थल का निर्माण किया गया। तब से लेकर आज भी प्रतिवर्ष विजयदषमी के दिन गुरूगद्वी स्थल अगमधाम खडुवापुरी में तीन द्विवसीय गुरूदर्षन झाकी, गुुरूगद्वीस्थल, समाधीस्थल, गुरूद्वारा के साथ में पुज्यनीय गुरूगोसाई, आदेषक निर्देषक, सचेतक, संचालक श्रद्वेय श्री श्री जगतगुरू विजयकुमार जी, पुज्यनीय जगतगुरू रूद्रकुमार जी, पुज्यनीय गुरू रीपुदमन जी व राजराजेष्वरी कौषल माता जी अपने लाखो संतो को दर्षन व आषीष प्रदान करते है। और अपार जनसमूह को गुरू उपदेष सतनामवाणी से जगत के संतों को जीवन व कर्तव्य पालन का बोध कराते है।

जगतगुरू की उपाधी सन् 1935 - हिन्दू समाज के माथे पर लगा अस्पृष्यता का कलंख को धोने व एकता को बचाने महात्मागांधी के द्वारा पूरे भारत भर में लगातार नौ महिने का दौरा करने के बाद भी धर्मातरण के सर्मथन व विरोध करने वालों का दो गुट बन गया एक गुट दलित महार समुदाय के डाॅ.बी.आर.अम्बेडकर येवला अमहदाबाद के सम्मेलन अक्टूबर 1935 में करीब 7 हजार दलितमहार को साथ लेकर बौद्वधर्म में धर्मातरण कर लिया। जबकि दुसरा गुट के सतनामी समाज सतनामपंथ के जगतगुरू अगमदासजी हिन्दूधर्म के अधीन ही संवैधानिक,सामाजिक,आर्थिक,षैक्षिक एवं राजनैतिक क्षेत्रो में धर्म व समाज का वर्ग आरक्षण लाभ, विकास हेतु धर्मातरण का विरोध किया,जगतगुरू के साथ ही मुबई के दलित नेता देवरूखकर,अंबेडकर के सहयोगी पी.जी.सोलंकी,रावबहादुर श्रीनिवास,और नारायणराव काजरोलकर का भी स्पष्ट मत था कि अन्य धर्म बदल लेने से समस्याए हल नही होगी। जगतगुरू के द्वारा लिए गये फैसले का सतनामपंथ के अलावा अन्य धर्म के लाखो लोगो द्वारा समर्थन/स्वीकारिता की चलते हिन्दूधर्म के लोगों का धर्मान्तरण / हिन्दूधर्म का विभाजन रूका। उक्त कार्य के लिए हिन्दू महासभा द्वारा महाराष्ट्र में 18 दिसंबर 1935 गुरूगोसाई अगमदास जी को हिन्दूधर्म के सर्वोच्च पदवी जगतगुरू की उपाधी से नवाजा गया।

संविधान निर्माण समिति के सदस्य 1947- जगतगुरू अगमदास जी के राष्टीय कृषक आंदोलन,नषामुक्ति,दलितउत्थान,स्वदेषी और स्वतंत्रता के आंदोलन में सहभागिता तथा समाज में व्यापत रूढिवाद, अंधविस्वास, अस्पृष्यता, कुरीतियां, गौवध बंद कराना, दलित समाज का विकास व भेदभाव को दुर करने में किया। जगतगुरू अगमदास जी को जुलाई 1947 को कांग्रेस के सर्मथन से भारत के संविधान निर्माण समिति में षामिल किया गया। जगतगुरू नें समाज के सभी मौलिक व संवैधानिक अधिकार पर के नियम कानून बनवाया जिससे सभी समाज के लोगो को विना किसी भेदभाव के षिक्षा, नौकरी,स्वरोजगार व न्याय मिले तथा सम्मान के साथ जीवनयापन कर सके। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष डाॅ. भीमराव अंबेडकर थे।

स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव 1951 में निर्वाचित सांसद - जगतगुरू अगमदास जी स्वतंत्र भारत के प्रथम आम लोक सभा चुनाॅव में मध्यप्रदेष राज्य के बिलासपुर दुर्ग रायपुर सामान्य सीट से चुनाॅव लड़कर लोकसभा क्रमांक 3 से कांग्रेस पार्टी से निर्वाचित होकर 1951 में सांसद बने। षासन से समन्वय बनाकर समाज के लोगो का निजि व सार्वजनिक जीवन को मुल विकास की धारा में जोड़ने अनेको लोक कल्याणकारी योजनाओं को प्रस्तावित/समर्थन कर नियम बनवाया।

जगतगुरू अगमदास जी सत में विलिन होना - गुरू गोसाई अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा व मानव उत्थान में लगा दिया। जगतगुरू जीवन भर सतनामी समाज के लोगो को सामाजिक, राजनैतिक व षासन-प्रषासन से सभी दर्जो पर अधिकार को पाने व दिलाने के लिए लगे रहे,सन् 1952 में जगतगुरू गोसाई अगमदास जी सत में विलिन हो गया। जगतगुरू की सत में विलिन होने की खबर पाते ही पूरा मानव समाज षोकमय हो गया। जगतगुरू अपने पीछे सत्यांषु युवराज जगतगुरू विजयकुमार (पुत्र) ममतामयी मिनिमाता व राजराजेषवरी करूणामाता (दोनो पत्नि) के साथ विषाल सतनामी समाज के अनुयायियों को छोड़ चला गया। जगतगुरू अगमदास जी द्वारा राज्य की उन्नति,जगतकल्याण,सामाजिक आंदोलनो के नेतृत्वकर्ता और सतनाम पंथ को अजर अमर बनाने तथा राष्टीय कृषक आंदोलन, नषामुक्ति, दलित उत्थान, स्वदेषी और स्वतंत्रता के आंदोलन में सहभागिता तथा समाज में व्यापत रूढिवाद, अंधविस्वास, अस्पृष्यता, कुरीतियां, गौवध बंद कराना व भेदभाव को दुर करने में किया गये प्रयास एवं लाखो लोगो द्वारा आपके नेतृत्व की स्वीकारिता के चलते के चारो दिषा में आपका कार्य प्रयास अनंतकाल तक याद किये जायेगे।

जगतगुरू श्री विजयकुमार जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - गुरू बाबाघासीदास जी से गुरू आगरदास (तृतीयपुत्र) श्री गुरूआगरदास से गुरू अगरमन दास, श्री गुरू अगरमनदास जी से वंषज गुरू अगमदास जी व राजराजेषरी करूणा माता से पाॅचवे वंषज जगतगुरू विजयकुमार का जन्म रायपुर में 19 सितंबर सन् 1951 को हुआ था। ममतामयी मिनीमाता व राजराजेष्वरी करूणामाता नें अपनें पुत्र गुरू विजयकुमार उर्फ अग्रनामदास का देखभाल, लालन-पालन, षिक्षा व सतनाम का संस्कार बचपन से दिया गया। जगतगुरू विजयकुमार जी सत्य अहिंसा के पग पर चल षंात, धैर्य, लगन, सरल व्यवहार,धर्म व कर्म के साथ जीवन के सभी कार्यो में आगे बढ़ते हुए अपनें पुर्वजों के सतनामधर्म पथ को विष्वधर्म बनाने की उदेष्य से कार्य योजना बनाकर कार्यरत है। जगतगुरू विजय कुमार का विवाह कौषल माता के साथ सन् 28 फरवरी 1974 में हुआ। जगतगुरू विजयकुमार जी राजराजेष्वरी कौषलमाता की दो संतान हुए पहले युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी का अवतरण सन् 23-07-1977 में उसके बाद दीदीगुरू प्रियंका का जन्म हुआ।

मानवता के धनी - जगतगुरू विजयकुमार जी का व्यकितत्व व जीवन में सतनामपथ पर चलते हुए अपने कर्तव्यो का पालनकर सतनामधर्म को सामाजिक और व्यवहारिक रूप में मानवीय मुल्यों की सहज स्थापना कर रहे है। मानव को सत्य का बोध कराकर सामाजिक चेतना जागृत कराये रहे है। गुरू परिवार ने सदैव सतनाम पंथ के साथ मानव समुदाय के विषय में चिंतन मंनन किया है,और समय समय पर क्रान्तिकारी सतनाम आंदोलन चक्र भी चलाये है,आज भी जगतगुरू का प्रयास रहता है कि आधुनिकता के दौड़ में मानव समाज को सही दिषा मिले। व्यक्ति के निजि/समाजिक विभिन्न समस्याओं का समाधान हो संसार में सत्य, प्रेम, अहिंसा, समानता, सहिष्णुता,संवेदना और सद्भावना के सतनाम संस्कार चिरकाल तक गतिमान बना रहे। सत्यकर्म के साथ मानवता को मार्गदर्षन प्रदान कर रहे है।

सामाजिक उत्थान में जगतगुरू का योगदान - संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम पथ का उदय ही मानव कल्याण,सामाजिक समरसता,प्रेम,एकता और जीवन उत्थान को लेकर हुआ है। गुरूबाबा घासीदास जी से लेकर जगतगुरू विजयकुमार जी तक सभी ने अपने जीवन का मुलमंत्र सामाजिक उत्थान दर्षाया है। बलिदानी राजागुरू बालकदास जी व जगतगुरू गोसाई अगमदास जी के द्वारा बनाये गये संविधान,नियम,उपनियम आज भी सामाजिक,धार्मिक,संस्कृति,प्रथा,परंपरा जैसे कि राज,जिला,तहसील व अठगंवा,ग्रामस्तर कमेंटी का सामाजिक गठन,सामाजिक कुरितियों से दुर रहना, नषापान से दुर, सत्य को मानना, सतपुरूष के करीब रहकर मानवीय संवेदना को समझाना और गुरू की विचार, वाणी, उपदेष पर अनुषरण कर जीवन को सफल बनाना सतनाम के संदेष गुरूगद्वी के माध्यम से गांव गांव,घर घर,हर परिवार में अनवरत रूप से प्रचारित व प्रसारित है।

जगतगुरू के संवैधानिक कार्य-गुरू के मार्गदर्षन पर ब्रिटिष षासनकाल से चली आ रही सामाजिक विकास की परिपाटी स्वतंत्र भारत में केन्द्र व राज्य षासन के साथ समाज के लोगो का सामुदायिक विकास व उत्थान के लिए सफल समन्वय प्रयास करना जगतगुरू अगमदास जी,ममता मयी मिनिमाता व राजराजेष्वरी करूणा माता द्वारा किया गया और अब इसे गुरूबाबा घासीदासजी के उत्तराधिकारी, गुरूगद्वीनसीन जगतगुरू विजयकुमार जी ने उक्त परिपाटी को बखुबी जारी रखा है। जगतगुरू विजयकुमार मध्यप्रदेष में कागे्रंस के षासनकाल (1980)में संचार मंत्री रहे जगतगुरू के प्रयास से गुरूपर्व 18 दिसंबर ( गुरूबाबा घासीदास जी की जयंती) पर ऐच्छिक अवकाष के प्रावधान को पूर्णकालिक अवकाष 1981 से घोषित करवाया, गुरूबाबा के नाम पर गुरू घासीदास विष्वविद्यालय की स्थापना (1981),गुरूघासीदास पर डाक टिकट,गुरूघासीदास के नाम पर अभ्यारण, गिरौदपुरी में एषिया के सबसे बड़ी पानी टंकी व विष्व के सबसे बड़ा उच्चा जैतखाम का निर्माण, गिरौदपुरी को पर्यटन स्थल में षामिल, मिनिमाता के नाम पर बागोंबांध का निर्माण गुरू घासीदास व मिनिमाता के नाम से षासन राज्य स्तर का सम्मान, स्कुल,आश्रम,सामुदायिक स्थल सहित विविध क्षेत्रो में समाज के गुरू व संत जनो के नाम पर नामकरण की घोषणा कराया। जिससे गुरू घासीदास व उनके सतनाम पथ को भारत सहित विष्व अपनें एक और महान संत को जान सका। षासन व जगतगुरू के निर्णय से समाज को सम्मान व अनुयायियों का मनोबल ऊचा हुआ।

गुरूधाम हेतु जगतगुरू के प्रयास - महान समाज सुधारक संत षिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी की जन्म व कर्मभूमि तथा स्थापित सभी सात प्रमुख सामाजिक धार्मिक आस्था स्थल गिरौदपुरीधाम, भण्डारपुरीधाम,तेलासीपुरीधाम,चटवापुरीधाम,खड़वापुरीधाम,बोडसराबाड़ा,खपरीपुरीधाम आदि के विकास,हेतु केन्द्र व राज्य षासन का ध्यान आकृष्ट कर जगतगुरू विजयकुमार जी ने षासन व समाज के बीच समन्वय बनाकर मेंला दिवस के अलावा प्रतिदिन सभी जगहो से पहुचने वालो श्रद्धालु दर्षनार्थीयो के लिए व्यवस्था के अंर्तगत गुरूद्वारा के समुचित रख रखाव,स्वास्थ्य,आवास, पेयजल,बिजली, सड़क, सराव,सतनाम मंच आदि के साथ अन्य मुलभूत सुविधाओं के लिए अनेको कार्य किए है।

राजनायको से संबध - जगतगुरू श्री विजयकुमार जी का देष से ख्यातिनाम राजनायकों के साथ मधुर संबध रहा है जिनमें प्रमुखतः स्व.राजीवगांधी जी भूतपूर्व प्रधानमंत्री,स्व.अर्जूनसिंह जी भूतपूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रिय मंत्री,स्व.विद्याचरण षुक्ला भूतपूर्व केद्रिय मंत्री, सुन्दरलाल पटवा पूर्व मुख्यमंत्री, मातीलाल वोरा पूर्व मुख्यमंत्री व राज्यसभा सांसद, डाॅ रमनसिंह वर्तमान मुख्यमंत्री छ.ग. बृजमोहन अग्रवाल वर्तमान कृषिमंत्री के साथ ही अनेको सामाजिक संगठनो पदाधिकारीयों व धर्मगुरूओं के साथ मधुर संबध है।

जगतगुरू के सतनाम संदेष - जगतगुरू श्री विजयकुमार जी संत समाज को अपनें आर्षिवचन में सदैव बतलाते है कि धरती पर बसी मानव जाति में सिर्फ भारतवर्ष ही विविधता में एकता के लिए जाना जाता है,क्योकि यहा हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, जैन, बौद्ध सहित अनेको धर्म सम्प्रदाय जाति के लोग निवास करते है,ऐसे में संत षिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के जातिभेद से परे सतनाम पंथ गुरू के द्वारा स्थापित आदर्षो के कारण अटल मजबुती के साथ सतनाम पंथावलंबियो को सामाजिक समानता व एकता से जोड़े हुए है, गुरू बाबा ने सत्य अहिंसा और समानता को मानव जीवन के लिए आवष्यक मानदण्ड प्रतिपादन किया और जीवन पर्यन्त सतनाम की राह पर चलकर अपने मानने वालों को उनके जीवन का सबंलता व सार्मथता प्रदान किया। गुरूबाबा के सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, करूणा, समानता व स्वतंत्रता के संदेष सतनामधर्म के मानने वालों को मार्गदर्षन कर रही है। वर्तमान समय में भैतिक,रासायनिक, आणविक युद्वो को भी विष्व मानव गुरूघासीदास जी के सतनाम अमृतवाणी को अपनाकर मुक्त किया जा सकता है। संत षिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम विचार किसी एक मानव, एक जाति,एक सम्प्रदाय के लिए नही वरण समस्त मानव व जीवों के लिए एक समान सीख है। जगतगुरू के वाणी विचार व सतनाम संदेष -

1.सत्य से बढकर कोई तप नही है,सत्य ही संसार को धारण किया है।
2.धर्म का परित्याग करने से सुख नही मिलता है, धर्म ही सुख का मूल है।
3.सतनाम के मार्ग पर चलने से सफलता अवष्य मिलेगी।
4.विपरीत समय में विवेक पूर्वक कार्य करे, बुद्वि कौषल से ही विपत्ति का समाधान होता है।
5.संतो का जीवन ज्ञान व अनुभव से प्रेरणा लेने पर मनुष्य का जीवनमार्ग सरल हो जाता है।
6.मानवीय कर्तव्यो का पालन प्रकृति के नियमानुसार करना चाहिए।
7.विपत्ति के समय निस्वार्थ भाव से साथ देने वाले मनुष्य ही आपका सच्चा हितैषी है।
8.मनुष्य की महानता उसकी सतचरित्र/सतआचरण होता है।
9.सबको सम्मान देना सतनाम पंथ के अनुयायी का कर्तव्य है।
10.धीरज,क्षमा,करूणा,दया,मृदुवाणी,षांति के साथ सतआचरण मानवीय सुख के आधार है।
11.किसी प्रकार का नषापान व मांस भक्षण मानव जीवन के लिए अनुचित है।
12.सतनामी समाज के लोगों का जीवन जुल्म व अत्याचार के विरूद्व सत्य अहिंसा पूर्वक लड़ने व गुरूबाबा के सतनाम धर्मपताका को अजर अमर बनाये रखने के लिए है।
13.सतनामधर्म सत्य, अहिंसा, समानता, स्वत्रतंत्रा, षांति एकता व विष्वबंधुता के गुणों से परिपूर्ण मानवधर्म है।
14.संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के जीवन,उपदेष,विचार अनमोल है।
15.सतनाम पंथ के स्त्रीयों को पुरूषो के समान बराबर का अधिकार प्राप्त होता है।
16.मुर्ख को उपदेष देना साप को दुध पिलानें के समान है।
17.मानव का सबसे षत्रु उसका अभिमान है।
18.माता पिता व दिनदुखियों का सदैव सामर्थनुसार सेवा सहयोग प्रदान करना श्रेष्ठ मानव धर्म है।
19. जगतकल्याणार्थ हेतु विष्व के सभी धर्मो के सतगुणों का ग्रहण व सर्वधर्म की समभाव सम्मान करना सतनामधर्म के अनुयायीयों का कर्तव्य है।
20. संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम पंथ के अनुरूप जीवन आचरण ही मानवता का आभूषण है।
21.किसी भी धर्म,जाति,सम्प्रदाय एवं देवी,देवता आराध्य की आलोचना से बचे।

षासन को कार्ययोजना भेजना - संत षिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के उपदेषों के प्रचार प्रसार साथ में समाज के मांग के अनुरूप विकास व मुलभुत संवैधानिक समस्याओं के निदान के लिए गुरूबाबा के पांचवी पीढ़ी के उत्तराधिकारी जगतगुरू श्री विजय कुमार जी व युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी धर्मनिति,राजनिति व अर्थनिति पर विविध कार्ययोजना बनाकर समाज के सर्वागिण विकास व उत्थान के लिए केन्द्र व राज्य षासन को समय समय पर प्रस्ताव सुझाव भेजकर समाज को सतनाम पंथिको का मार्गदर्षन प्रदान कर रहे है। जगतगुरू प्रदेष के भाजपा षासन काल में छ.ग. राज्य अत्यांव्यवसायी विकास व वित्त निगम के अध्यक्ष पद पर रहते हुए समाज के अनेकों युवाओं को स्वरोजगार स्थापना के लिए प्रषासन के योजनाओं का लाभ दिलाया ।

युवराज जगतगुरू श्री रूद्रकुमार जी

बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के पांचवी पीढ़ी के उत्तराधिकारी जगतगुरू विजयकुमार जी राजराजेष्वरी कौषलमाता की गोद में छटवें वषंज युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी का अवतरण सन् 23-07-1977 में हुआ है। गुरू रूद्रकमार जी बचपन से ही कुषाग्र बुद्वि व जिज्ञासु प्रवृति के रहे है, युवराज गुरू रूद्रकमार जी सतनाम संस्कार के वातावरण में पला बढ़ा बेसिक षिक्षा में स्नातक की उपाधि के पष्चात युवा अवस्था में पहुचने पर भारत सहित विष्व के अनेकों धर्म व सम्प्रदायों के सामाजिक धर्मग्रंथ,जीवन षैली,रहन सहन,आचार विचारों का गहन अध्ययन कर अपने अनुभव में पाया कि संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम पथ मानव जीवन व मानवता कल्याण के लिए श्रेष्ठ पथ है तथा सादा जीवन उच्च विचार सतनाम धर्म ही एक मात्र आर्दष मानव धर्म है। युवराज जगतगुरू का विवाह सरितामाता के साथ 29 अप्रैल 1989 को हुआ जिनके गोद में जेष्ठ पुत्री दीदीगुरू नीति व गुरूबाबा जी के सातवें वष्ंाज गुरू रीपुदमन 1जुलाई 2009 को अवतरीत हुआ।

युवराज जगतगुरू का एकांतवास - युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी सतनाम को करीब से जानने व समझने तथा स्वंय को सत्य की कसौटी में कसनें पारिवारिक व संसारिक मोह माया व अन्य विघ्न बाधाओं से दुर संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के तपोभूमि गिरौदपुरीधाम पहुचकर संयमी साधनामय जीवन व्यतीत करतें है। और युवराज जगतगुरू विविध घ्यानयोग से सतज्ञान का बोध व सत्यपुरूष की कृपा के साथ सम्पूर्ण षारीरिक,मानसिक,बौद्धिक,आध्यात्मिक जीवन में पे्रम,षान्ति, सद्भाव,परोपकार के गुणों को आत्मसाध करते है। जिसके चलते युवराज जगतगुरू के जीवन में सादगी व पारदर्षीता है,जगतगुरू रूद्रकुमार जी संत समाज को स्वस्थ,सुखी व सम्मानित के जीवन सुत्र का पालन करनें कहते है।

युवराज जगतगुरू के सामाजिक कार्य - युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी अपनें पिता जगतगुरू श्री विजयकुमार जी के साथ मानव समाज के विकास व उत्थान के कार्यो में हाथ बटाते हुए सतनाम के पंथ को सुदृढ़ बनाने समर्पित भाव से अपनें कर्तव्य का पालन कर रहे है। युवराज जगतगुरू अपनें पुर्वजों के सतनाम संस्कृति से भूले भटके मानव को सही दिषा तथा समाज में एकता को बनाये रखनें प्रदेष,देष व विदेष में जगह जगह राऊटी/दौरा कर संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के प्रेम,एकता,दया,करूणा,समभाव,समानता के संदेष,उपदेषों को धर्म सभाओं /सम्मेलनों के माध्यम से जन-जन तक पहुचाने का कार्य किया जा रहा है। युवराज जगतगुरू के इस महानतम कार्यो में सहयोगी राजमंहत, जिलामंहत, गुरूप्रवक्ता, भण्डारी, छड़ीदार व सामाजिक कार्यकर्ताओं की फौज होती है।

युवराज जगतगुरू की राजनिति - युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी समाज के राजमंहतों,सामाजिक कार्यकर्ताओं व संतसमाज के आग्रह पर अपनें पूर्वजों की भांति राष्ट्रीय काग्रेंस की सक्रिय राजनिति कर 2008 में छत्तीसगढ़ विधानसभा के निर्वाचित विधायक बनें। युवराज जगतगुरू अपनें विधायकी के कार्यकाल में आरंग विधानसभा क्षेत्र के मुलभुत आवष्यकताओं,समस्याओं का निदान,लोगों के विकास हेतु पहल,आरंग को पर्यटन का दर्जा,समोदा डेम निर्माण, अनु.जाति के आरक्षण कटौती पर विधानसभा का बहिष्कार के अलावा राज्य के विविध क्षेत्रो से सतनामी समाज के मांगों को षासन -प्रषासन से अवगत कराकर पुरा कराने का प्रयास किया गया। जगतगुरू रूद्रकुमार जी वर्तमान में प्रदेष काग्रेंस के महासचिव है,और राष्ट्रीय काग्रेंस पार्टी के विचार धारा से मिलकर सतनामी समाज के अलावा सर्वधर्म सम्प्रदाय लोगों के सुविधाओं व अधिकारों के लिए प्रयास कर रहे है।

युवराज जगतगुरू के लक्ष्य - भारत धर्मो का देष है,भारत ने धर्म का विकास एवं पतन देखा है। और धर्म के क्षेत्र में भारत विष्व का गुरू है। सतनामधर्म को विष्व धर्म बनानें संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम संदेष,उपदेष,आर्दष,चिंतन,जीवन,व्यक्त्वि व सिंद्धात से संसार के मानव जनों को अंतःकरण कराना है। युवराज जगतगुरू सतनाम पंथ के प्रचार प्रसार व विकास हेतु समाज को समानता,स्वतंत्रता,भाईचारा व राष्टीयता के चार स्तंभ को आधार मानकर समाज सेवा की भाव से कार्य करनें का संदेष मानव जनों को देते है। सत्य की सदैव विजय होती है इसलिए गर्व के कहो हम सतनामी है,यहसतनाम का बोध युवराज जगतगुरू रूद्रकुमार जी हर मंच पर संत समाज को करवातें है।

युवराज जगतगुरू के सामाजिक उद्वेष्य -

1.सतनामधर्म,सत्य,अहिंसा,मानवता,तथा समानता जैसे संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम सतसंदेष को संसार में सर्वसमाज के मानव जन तक ले जाना।
2. संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम वाणी विचार,उपदेषों का पालन प्रत्येक सतनामी को करवाना।
3. संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के सतनाम सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देनें,संरक्षित व सुरक्षित बनाये रखनें समय समय पर सामाजिक संवैधानिक विधि - विधानों पर संषोधन /परिर्वतन/ विलोप प्रावधान के अधिकार का प्रयोग करना।
3.सतनाम के नियमो व संविधान के प्रचार प्रसार में राजमंहत, जनप्रतिनिधि, षासकीय व गैर षासकीय अधिकारी कर्मचारी,सामाजिक कार्यकताओं को जोड़कर समाज विकास का समन्वय बनाना।
4.समाज के लोगो की स्वास्थ्य, षिक्षा, नौकरी, स्वरोजगार व कौषल विकास सहित सामुदायिक सामाजिक समस्याओं हेतु सामाजिक कार्यषाला/धर्मसभा का आयोजन करवाना ।
5.सामाजिक सेवाकार्य इच्छुक समाज सेवकों को योग्यतानुसार समाज सेवा की जिम्मेदारी प्रदान करना।
6.षिक्षित व प्रोफेषनल युवाओं को समाज विकास की मुलधारा में जोड़ना जिससे कि समाज में जागरूकता व सामाजिक एकता बनी रहे।
7 सतनामी समाज के गुरूद्वारा स्थलों,सतनाम षक्ति केन्द्रों,स्वैच्छिक संगठनों,षैक्षणिक संस्थानों के सामाजिक धार्मिक व सामुदायिक सेवा कार्यो के लिए तन,मन,धन से सहयोग प्रदान करना।
8.समाज के लोगो का विविध क्षेत्रो/विद्याओं जैसे - सांस्कृतिक,आध्यात्मिक,समाजसुधार,षिक्षा,कला, चिकित्सा,विधि,निर्माण,धर्मप्रचार आदि में किए गये उत्कृष्ट कार्यो का मुल्याकंन कर अठंगवा,तहसील, जिला,राज्य,राष्ट्रीय व अर्तराष्ट्रीय स्तर पर धर्मसभा,समाजिक सम्मेलन या गुरूपर्व जंयती पर सम्मान प्रदान करना।
9.समाज के गरीब,अपंग,गम्भीर रोग ग्रसित,बेसहारा ,अनाथ लोगो की मुलभूत सुविधा के साथ उनका स्थायाी पुर्नवास उपलब्ध करवाना।
10.समाज के विकास व उत्थान के लिए नवीन प्रयोगों व नये विचारों के द्वारा प्राप्त परिणामों, विधियों और प्रक्रियाओं की रिपोर्ट तैयार करना।
11.व्यक्तिगत/सामाजिक समस्याओं के लिए स्वविवेक अथवा अभिमत तैयार कर समस्याओं का समाधान करना।
12.समाज में पारीवारिक व सामाजिक मुद्वो पर पुरूषों के अलावा महिलाओं,युवाओं तथा बुजुर्गो भी बराबर के भागीदारी है अतः इनके विचारो सहमति का अनदेखा नही किया जा सकता है।

जय सतनाम्